एक चीन नीति: इतिहास, वर्तमान और भविष्य पर पुनर्विचार
- Alok Kumar
- 13 जून 2024
- 6 मिनट पठन
अपडेट करने की तारीख: 13 जून 2024

एक चीन नीति क्या है?
People's republic of China (PRC) अर्थात लोक गण तांत्रिक चीन 1949 में अस्तित्व में आया। इसे ही आमतौर पर चीन कहा जाता है। इसके अंतर्गत चीन की मुख्य भूमि मकाऊ और हांगकांग जैसे दो विशेष रूप से प्रशासित क्षेत्र हैं ,जो स्वायत हैं । जबकि Republic of China (ROC) का साल 1911 से 1949 के बीच चीन पर कब्जा था, परंतु अब उसके पास चीन की मुख्य भूमि से दूर दक्षिणी चीन सागर में ताईवान और कुछ अन्य द्वीपों पर नियंत्रण है , जिसे अब ताइवान कहा जाता है।
एक चीन नीति का तात्पर्य PRC की ऐसी नीति से है जिसके अनुसार चीन नाम का सिर्फ एक ही राष्ट्र है और ताइवान कोई अलग देश नहीं बल्कि चीन का ही एक प्रांत है इस नीति के अंतर्गत चीन का यह मानना है कि जो देश PRC के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित करना चाहते हैं उन्हें एक चीन नीति का पालन करना होगा अर्थात उन्हें ROC या ताइवान से सारे आधिकारिक संबंध समाप्त करने होंगे इसका अर्थ यह है कि चीन एक है और ताइवान उसका हिस्सा है।

ऐतिहासिक विकास
चीन में साल 1644 में चांग वंश सत्ता में आया। उसने चीन का एकीकरण किया परंतु 1911 की चीनी क्रांति के परिणाम स्वरुप चांग वंश के
शासन की समाप्ति हुई।
इसके पश्चात चीन में कोमितांग की सरकार बनी इसी सरकार को ROC के रूप में आधिकारिक रूप से जाना गया।
परंतु चीन में धीरे-धीरे साम्यवादी दल का उदय और विकास हुआ ।पहले चरण में साम्यवादी दल और राष्ट्रवादी दल दोनों ने मिलकर ही को कोमितांग सरकार चलाई परंतु राष्ट्रवादी दल के नेता चांग काई शेक के कई अलोकप्रिय नीतियों के विरुद्ध साम्यवादी दल ने अपने नेता माओ के नेतृत्व में संघर्ष किया। 1927 से 1949 के मध्य इन दोनों दलों के संघर्ष को ही चीनी गृह युद्ध भी कहा जाता है।
अंततः 1949 में साम्यवादी दल के नेता माओ के नेतृत्व में चीन की मुख्य भूमि पर नियंत्रण स्थापित कर PRC की स्थापना की गई और राष्ट्रवादी दल और उसके नेता का नियंत्रण मात्र फ़रमोसा तथा कुछ अन्य द्वीप पर रह गया इसे ही आज ताइवान कहा जाता है।
साम्यवादी क्रांति 1949 के पश्चात
आरंभ में PRC तथा ROC दोनों ही अपने आप को आधिकारिक चीन के रूप में घोषित करते थे, परंतु भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात साम्यवादी चीन को ही वास्तविक चीन की मान्यता दी और उसके साथ न सिर्फ कूटनीतिक संबंध स्थापित किया बल्कि विश्व समुदाय में हमेशा साम्यवादी चीन का समर्थन किया तथा संयुक्त राष्ट्र संघ में भी साम्यवादी चीन को ही वास्तविक चीन के रूप में स्वीकार करने की कूटनीतिक मुहिम चलाई।
यहां तक की 1954 में चीन भारत संधि के द्वारा भारत ने चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जे को भी स्वीकार कर लिया और उसे चीन के एक हिस्से के रूप में स्वीकार कर लिया।
स्वतंत्रता के पश्चात भारत का दृष्टिकोण
चीन के साथ कूटनीतिक संबंध रखने वाले देश सामान्यतः एक चीन नीति का पालन करते हैं। वस्तुतः चीन इसे अपने साथ कूटनीतिक संबंधों के एक पूर्व शर्त के रूप में प्रस्तुत करता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात से ही भारत ने न सिर्फ एक चीन नीति का पालन किया बल्कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर हमेशा इसे विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर स्वीकृति दिलाने में चीन के साथ कदमताल किया है।
विभिन्न विद्वान इसे पंडित नेहरू की यथार्थवादी नीति का परिचायक भी मानते हैं क्योंकि स्वतंत्रता के पश्चात से ही भारत से अलग हुए पाकिस्तान ने भारत के प्रति शत्रुतापूर्ण नीति अपनाई, जिसके कारण 1948- 49 में सीमित स्तर पर ही सही लेकिन भारत-पाकिस्तान के बीच सैन्य संघर्ष भी हुआ ।1971 में बांग्लादेश के जन्म के पहले तक भारत के पूर्वी व पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान की उपस्थिति के कारण दो मोर्चों पर तनावपूर्ण स्थिति थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत की प्राथमिकता राष्ट्र निर्माण की थी । इसके लिए हमें तीव्र सामाजिक आर्थिक विकास व परिवर्तन के कार्यक्रमों को लागू करना था ।इसलिए भारत एक नए मोर्चे अर्थात उत्तरी सीमा पर संघर्ष व तनाव से बचना चाहता था इसलिए पंडित नेहरू ने कहीं ना कहीं चीन के प्रति शांति व मित्रता की नीति अपनाकर चीन की तुष्टीकरण का प्रयास किया। यही तुष्टीकरण आज भारत के आंतरिक व बाह्य मोर्चे पर भारत के लिए आत्मघाती बन गया है।
चीन की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा
इसके साथ ही कुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि साम्यवादी चीन के उदय के पश्चात शीघ्र ही चीन के खतरनाक साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं को प्रतिसंतुलित करने के लिए पंडित नेहरू ने चीन के तुष्टीकरण की नीति अपनाई जिसका सबसे बड़ा उदाहरण 1954 का चीन - भारत संधि है जिसके अंतर्गत भारत ने तिब्बत पर चीन के अधिकार को मान्यता प्रदान किया परंतु इसके बावजूद भी 1962 में चीन द्वारा भारत पर एक तरफा आक्रमण यह सिद्ध करता है कि पंडित नेहरू द्वारा चीन के तुष्टीकरण की नीति बुरी तरह विफल हुई थी।
समय के साथ चीन की साम्राज्यवादी आकांक्षाएं बढ़ती गई ।चीन ने यह कहना आरंभ किया कि वह अंग्रेजी शासन काल में की गई संधिया तथा मैकमोहन रेखा को नहीं मानता ।भारत का अरुणाचल प्रदेश तिब्बत का अंग है।
1962 के युद्ध में चीन ने भारत के जम्मू कश्मीर राज्य के लद्दाख के एक हिस्से अक्साई चिन पर अधिकार कर लिया तथा लद्दाख को भी चीनी भूभाग बताने लगा। इतना ही नहीं भूटान, नेपाल, म्यांमार और दक्षिण पूर्वी एशिया के तमाम देशों के साथ उसका सीमा विवाद चीन की मनमानी एवं साम्राज्यवादी आकांक्षाओं से त्रस्त है।
परंतु इसके बावजूद भी हमने इससे कोई सबक नहीं लिया और लगातार चीन के साथ अच्छे संबंध बनाने की एकतरफा नीति का पालन करते रहे। संभवतः भारत का यह दृष्टिकोण था कि एशिया में एक बड़ा देश होने के कारण चीन उसे अपने क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धी के रूप में देखता है यदि भारत निरंतर चीन के प्रति मित्रता एवं शांति की नीति का पालन करेगा तो निश्चय ही समय के साथ चीनी दृष्टिकोण में परिवर्तन होगा।
परंतु चीन ने लगातार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता सहित तमाम अंतरराष्ट्रीय संगठनों ,मंचों एवं संधियों में भारत के प्रवेश का हमेशा विरोध किया। यहां तक की पाकिस्तान के विभिन्न आतंकियों और आतंकवादी संगठनों पर जब भारत के प्रयास से प्रतिबंध के प्रस्ताव लाए जाते हैं तो चीन अपने वीटो की शक्ति का प्रयोग इन्हें बचाने के लिए करता है।
एक चीन नीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता
पिछले 72 साल के अनुभवों से सबक लेना आवश्यक है।यह समझना आवश्यक है कि एक चीनी नीति का पालन करना भारत के लिए खतरनाक है। अतः 2014 से ही जब प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार आई और विदेशी नीति में कई नए अनुप्रयोग हुए तो यह अपेक्षा की जा रही थी कि अब चीन के प्रति भारत की नीति एवं दृष्टिकोण में बड़े बदलाव होंगे।
परंतु यहां यह भी समझना आवश्यक है कि इतने वर्षों से चली आ रही नीति को एक झटके में ही नहीं बदला जा सकता ।साथ ही भारत चीन व्यापार जो लगभग 100 बिलियन डॉलर का है ,जिसमें कई आर्थिक क्षेत्र में भारत चीन पर निर्भर है उसे रातों-रात नहीं बदला जा सकता। यह भारत के आर्थिक हितों में भी नहीं है।
परंतु दूसरी तरफ यह भी सही है कि 10 वर्षों के शासन के बाद अब हमें इस दिशा में पुनर्विचार करने की आवश्यकता है । विशेष कर गलवान घाटी झड़प के पश्चात तिब्बत के प्रति भारतीय नीति व दृष्टिकोण में परिवर्तन कर हम चीन को एक सख्त संदेश तो दे ही सकते हैं। स्वर्गीय सुषमा स्वराज ने चीनी विदेश मंत्री को सख्त संदेश देते हुए यह सही ही कहा था कि यदि चीन यह चाहता है कि भारत एक चीन नीति का पालन करता रहे तो चीन को भी एक भारत नीति का पालन करना होगा। इसका सीधा व सरल अर्थ यह है कि चीन भारत की सीमाओं की संप्रभुता का सम्मान करें, जम्मू कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग माने और भारत चीन के मध्य हुए संधियों का सम्मान करते हुए आपसी बातचीत से आपसी विवादों के समाधान का प्रयास करे।
इस दिशा में चीन पर दबाव डालने के लिए भारत दूसरा कदम यह उठा सकता है कि ताइवान के साथ आर्थिक ,सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में भागीदारी को बढ़ाए। यह चीन पर भारत की आर्थिक - व्यापारिक निर्भरता तथा व्यापार संतुलन को भी प्रति संतुलित करने में महत्वपूर्ण होगा।
संक्षेप में 72 वर्षों से भारत जहां चीन के प्रति मित्रता व शांति के संबंधों को अपनाता आ रहा है वहीं लाख प्रयास के बावजूद भी चीन भारत के प्रति शत्रुता के व्यवहार में तनिक भी परिवर्तन नहीं कर पाया है। इसलिए यह सही समय है कि भारत एक चीन नीति को हथियार के रूप में प्रयुक्त कर चीन को भारत के प्रति अपनी नीतियों में परिवर्तन के लिए प्रेरित करे । हालांकि यह आसान नहीं है परंतु अपनी वैदेशिक नीति में परिवर्तन की संभावनाओं को हमें तलाशना ही होगा ।संभावित विकल्पों को हमें विकसित करना ही होगा।
अति उत्तम भारत और चीन के संबध में अपने विचारो को लेखन के माध्यम से सभी के समक्ष रखे है ,अपने पड़ोसी देश के 72वर्षो के संबध को आपके द्वारा जानने का मौका मिला धन्यवाद सर
Nice explanation and future perspective ❤️
good suggestion for diplomatic relation with China
Very knowledgeable information by Alok Sir🙏🏼
Very important & knowledgeable information 🙏🏻